सत्ता परिवर्तन के लिए 60 प्रतिशत नौजवान वोट निर्णायक
बी.जे.पी. और एस.पी. में सीधा मुक़ाबला
अफ़रोज़ आलम ‘साहिल’, दिल्ली
बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक से फासीवादी ताक़तों को शह मिल रही है। बुद्धिजीवियों के साथ हफ़्तरोज़ा दावत की ख़ास बातचीत—
यू.पी. में चुनावी बिगुल बज चुका है। पहले चरण में ग्यारह ज़िलों की 58 सीटों पर 10 फ़रवरी को वोट डालें जाएँगे। अब जबकि तमाम राजनैतिक पार्टियाँ अपनी ताक़त का प्रदर्शन कर रही हैं, ताक़त के तमाम कारकों में एक बड़ा कारक मुस्लिम वोटों को भी माना जा रहा है। यू.पी. के मुस्लिम वोटर जिस तरफ़ रुख़ करते हैं सत्ता की हवा उसी दिशा में बहती है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने इस इलेक्शन को बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक क़रार देकर मुसलमानों के वोटों के महत्त्व को कम करने की कोशिश की है, जबकि अन्य राजनैतिक पार्टियों की नज़र अब भी न सिर्फ़ मुस्लिम वोटरों पर टिकी हुई है, बल्कि कुछ राजनैतिक पार्टियाँ तो यह समझ रही हैं कि मुस्लिम वोटों पर सिर्फ़ उन्हीं का हक़ है। हफ़्तरोज़ा दावत के नुमाइंदे ने राजनैतिक विश्लेषकों और वरिष्ट्र पत्रकारों से वार्ता कर के यह जानने की कोशिश की कि यू.पी. इलेक्शन में इस बार किस प्रकार के नतीजे आने की संभावनाएँ हैं। मुसलमान वोटर्ज़ इस बार किस ओर रुख़ करेंगे? क्या असदउद्दीन उवैसी के चुनावी मैदान में उतरने से कोई ख़ास फ़र्क़ पड़ेगा या किसान आन्दोलन और कोविड के दौरान यू.पी. में घटित होने वाली घटनाओं की वजह से लोग बी.जे.पी. से अपना मुँह मोड़ लेंगे? और सबसे अहम बात यह है कि यह चुनाव अल्पसंख्यकों की रक्षा की दृष्टि से कितना महत्त्वपूर्ण है।
हफ़तरोज़ा दावत के साथ ख़ास बातचीत में राजनैतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार अनिल माहेश्वरी कहते हैं कि मेरी नज़र में पूरे तीस या पैंतीस साल बाद ऐसा इलेक्शन देखने में आ रहा है जिसमें सिर्फ़ दो राजनैतिक पार्टियाँ एस.पी. और बी.जे.पी. ही सबसे प्रभावी नज़र आ रही हैं। इलेक्शन इस बात पर है कि कौन मोदी के साथ है और कौन मोदी के ख़िलाफ़ है। यह कोई नहीं कह सकता है कि उनमें किसका पलड़ा भारी होगा, इस लिहाज़ से यह इलेक्शन सबसे ज़्यादा अप्रत्याशित होगा। अनिल माहेश्वरी अंग्रेज़ी अख़बार हिन्दुस्तान टाइम्स से जुड़े रहे हैं और उन्होंने यू.पी. की राजनीति को काफ़ी क़रीब से देखा है। अगले कुछ दिनों में यू.पी. इलेक्शन पर उनकी एक किताब मार्किट में आ रही है, जिसे ओम बुक्स इंटरनेशनल ने प्रकाशित किया है।
बहुजन समाज पार्टी (बी.एस.पी.) और कांग्रेस के सवाल पर अनिल माहेश्वरी कहते हैं कि बी.एस.पी. अब हाशिए पर चली गई है। कांग्रेस पहले से ही हाशिए पर थी, लेकिन इस बार उन्होंने काफ़ी मेहनत की है इसलिए हो सकता है कि इस बार शायद वह बीस से पच्चीस सीटें लाकर तीसरे नंबर पर आ जाए। वे आगे कहते हैं कि मीडिया हमेशा मुसलमानों की ग़लत तस्वीर पेश करता है कि वे यकतरफ़ा वोटिंग करते हैं जो कि पूरी तरह से ग़लत है। मैं तो यह भी देख रहा हूँ कि यू.पी. में मुसलमानों की एक तादाद ऐसी भी है जिनके वोट बी.जे.पी. को जा सकते हैं। दरअस्ल इस बार नतीजों का दारो-मदार यहाँ के नौजवान वोटरों पर है, क्योंकि यू.पी. में इस वक़्त साठ प्रतिशत से अधिक वोटर्ज़ ऐसे हैं जिनकी उमरें चालीस साल से कम हैं।
हफ़्तरोज़ा दावत के साथ ख़ास बातचीत में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के सेंटर ऑफ़ ऐडवांस स्टडी इन हिस्ट्री के प्रोफ़ैसर मुहम्मद सज्जाद कहते हैं कि राजनीति को बहुत दूर से देखने वाले भी कह रहे हैं कि यू.पी. में अस्ल मुक़ाबला बी.जे.पी. और एस.पी. के दरमियान ही है। बाक़ी रहीं दूसरी पार्टियाँ तो वे कुछ सीटों पर असर डालेंगी, कहीं जीत जाएँगी या किसी को जिताने या हराने का कारण बन जाएँगी। प्रोफ़सीर सज्जाद बिहार एवं उत्तर प्रदेश की राजनीति पर काफ़ी गहरी नज़र रखते हैं। बिहार की मुस्लिम राजनीति पर उनकी दो किताबें आ चुकी हैं। वे उतर प्रदेश की मुस्लिम राजनीति पर भी लिखते रहे हैं। अनिल माहेश्वरी की वर्तमान किताब में यू.पी. की मुस्लिम राजनीति पर एक हिस्सा उनका भी है।
प्रोफ़ेसर मुहम्मद सज्जाद आगे कहते हैं कि सबने तरह-तरह की अफ़ीम चाट रखी है। अब यह कहना मुश्किल है कि कोविड के दौरान लोगों में जो नाराज़गी पाई जाती थी वह वोट देते वक़्त भी बाक़ी रहेगी। यह हो सकता है कि लोग नफ़रत और वैमनस्य के नशे में यह बात भूल जाएँ। अगर उसका असर अब तक समाप्त नहीं हुआ है तो फिर बी.जे.पी. का यह इलैक्शन हारना बहुत मुश्किल है।
वरिष्ठ पत्रकार क़ुर्बान अली हफ़्तरोज़ा दावत के साथ ख़ास बातचीत में बताते हैं कि इस बार यू.पी. इलेक्शन में मुक़ाबला सख़्त है। कुछ लोगों का यह सोचना कि साम्प्रदायिक ताक़तें कमज़ोर हो गई हैं, ग़लत है। हो सकता है कि मैं भी ग़लती पर हूँ, लेकिन बतौर पत्रकार ग्राउंड पर तो मुझे यही नज़र आ रहा है। बी.जे.पी. का यह इलेक्शन हारना मुश्किल है। इस की वजह यह है पिछले 7-8 बरसों में जिस तरह दिमाग़ों का साम्प्रदायीकरण किया गया इसमें जब वोट का मसला आता है तो ‘कास्ट लाइन’ भी टूट जाती है और इलेक्शन हिंदुत्व के एजंडे पर चला जाता है। विपक्षी पार्टियाँ भी इस एजंडे को चैलेंज नहीं करतीं, बल्कि वे भी इसी लाइन पर चल पड़ती हैं। अब राहुल गांधी भी हिंदू राज्य की बात करते हैं और अखिलेश यादव भी परशुराम जयंती मनाते हैं और मुसलमानों को ‘टेकन फ़ार ग्रांटेड’ लेते हैं कि आख़िर यह जाएगा कहाँ? और ग्राउंड पर भी लोग यही कह रहे हैं कि बी.जे.पी. जैसी भी है लेकिन है तो अपनी हिंदुओं की पार्टी।
यू.पी. की सियासत और सोशल मीडिया को क़रीब से देखने वाले जे.एन.यू. के रिसर्च स्कालर इस्तिख़ार अली का कहना है कि भले ही इस इलेक्शन में चुनावी रैलियाँ ऑनलाइन यानी सोशल मीडिया पर हो रही हैं लेकिन बी.जे.पी. यह लड़ाई ज़मीन पर लड़ रही है। जो बी.जे.पी. कभी सोशल मीडिया के ज़रिये से सत्ता में आई थी वही बी.जे.पी. सोशल मीडिया पर शेयर होने वाले मुसलमानों से संबंधित सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों तरह के पोस्टों को दिखा कर हिंदुओं को एकजुट कर रही है। हमारे मुसलमान नौजवान जज़बात में आकर हर रोज़ सोशल मीडिया पर जो चाहते हैं लिख देते हैं, लेकिन वे नहीं जानते कि बी.जे.पी. उसका इलेक्शन में किस तरह फ़ायदा उठा रही है। सोशल मीडिया के हमारे पोस्ट हमारी तरह सोच रखने वालों को ही नज़र आते हैं, लेकिन हिंदुत्व कैंप में हमारे बारे में क्या बातें होती हैं वे हम तक नहीं पहुंचतीं, जबकि वे हमारे तमाम पोस्टों पर नज़र रखते हैं। आपको यह जान कर हैरानी होगी कि हिंदुत्ववादी मुस्लिम नामों से सोशल मीडिया पर सरगर्म हैं और निःसंकोच भड़काऊ बातें लिखकर फैलाते हैं। ऐसे एकाउंट्स की तादाद हज़ारों बल्कि लाखों में हो सकती है। स्पष्ट रहे कि इस्तिख़ार अली का संबंध उतर प्रदेश के ज़िला मिर्ज़ापुर से है और वे इन दिनों जर्मनी की एक मशहूर यूनिवर्सिटी में बतौर रिसर्च फ़ेलो हैं।
मुसलमानों को इस चुनाव में क्या करना चाहिए
इस सवाल के जवाब में क़ुर्बान अली कहते हैं कि इन दिनों यह एजेंडा चलाया जा रहा है कि साम्प्रदायिक शक्तियों को अगर शिकस्त देना है तो मुसलमानों को समाजवादी पार्टी को ही वोट देना चाहिए। मेरे ख़याल में यह मुनासिब बात नहीं है क्योंकि मुसलमानों के बारे में समाजवादी पार्टी का ट्रैक रिकार्ड अच्छा नहीं रहा है। मोदी सरकार में जितने भी क़ानून पास किए गए हैं, समाजवादी पार्टी ने उनमें एक-आध को छोड़कर बाक़ी सबका समर्थन किया है। सी.ए.ए. और एन.आर.सी. पर अभी तक इस पार्टी ने कोई पक्ष नहीं अपनाया है। ऐसे में मुसलमान ख़ुद को किसी एक राजनैतिक पार्टी के साथ न बाँधें, बल्कि अब तक जिस तरह से रणनीति के साथ वोट देते आए हैं उसी को इस बार भी अपनाएँ। हर सीट पर उम्मीदवार को देखें कि कौन बी.जे.पी. उम्मीदवार को हराने की ताक़त रखता है, उसी को अपना वोट दें। अगरचे लोकतंत्र में सबको अपनी पसंद का उम्मीदवार चुनने का हक़ है।
कितनी है उतर प्रदेश में मुस्लिम आबादी और क्या रही हिस्सेदारी
साल 2011 की जनगणना के अनुसार उतर प्रदेश में 19.26 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है। उतर प्रदेश की 403 असेंबली सीटों में 157 सीटें ऐसी हैं जहाँ मुस्लिम मतदाता हार-जीत का फ़ैसला करने की क़ुव्वत रखते हैं और जिसे चाहें सत्ता दिला सकते हैं, लेकिन इस के बावजूद 2017 के असेंबली इलेक्शन में मात्र पच्चीस मुस्लिम उम्मीदवार ही इलेक्शन में कामयाबी हासिल कर पाए। उनमें से सत्रह एस.पी., छः बी.एस.पी. और दो कांग्रेस से थे। हालाँकि दूसरे नंबर पर रहने वाले मुस्लिम उम्मीदवारों की तादाद अच्छी ख़ासी थी। इस बार 84 मुस्लिम उम्मीदवार दूसरे स्थान पर थे। कुछ सीटों पर उन्हें बहुत कम वोटों के फ़र्क़ से शिकस्त हुई। मसलन बी.एस.पी. की सय्यदा ख़ातून डूमरिया गंज असेंबली हलक़े से बी.जे.पी. के राघवेन्द्र प्रताप सिंह से मात्र 171 वोटों के फ़र्क़ से हार गईं । दूसरी तरफ़ एस.पी. के लियाक़त अली मीरापुर असेंबली क्षेत्र से मात्र 193 वोटों से हार गए जबकि श्रावस्ती असेंबली क्षेत्र से एस.पी. के मुहम्मद रमज़ान को सिर्फ़ 445 वोटों से शिकस्त हुई थी।
साल 2012 में राज्य में 68 मुस्लिम विधायक चुने गए थे, जबकि 2007 के असेंबली चुनावों में सिर्फ़ 56 मुसलमान ही इलेक्शन जीत सके थे।
आंकड़ों से यह भी मालूम होता है कि 68 असेंबली क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी 35 ता 78 प्रतिशत है। यहाँ मुसलमान जिसे भी वोट दें उसकी जीत निश्चित है। हम आपको यह भी बताना चाहते हैं कि इन 68 सीटों में आठ सीटें एस.सीज़ और एस.टीज़ के लिए आरक्षित हैं।
इतना ही नहीं आंकड़ों के अनुसार इन 68 सीटों के अलावा 89 असेंबली क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी 20 से 28 प्रतिशत तक है। यानी यहाँ मुसलमान एकजुट हो कर किसी एक उम्मीदवार को वोट दें तो उसकी जीत हो सकती है। इन 89 सीटों में से ग्यारह सीटें एस.सीज़ और एस.टीज़ के लिए आरक्षित हैं।
2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार राज्य के जिन ज़िलों में मुस्लिम आबादी दस प्रतिशत या इस से अधिक है उनमें दो सौ से ज़्यादा असेंबली क्षेत्र हैं। यानी यहाँ भी मुसलमान एक निर्णायक शक्ति हैं।
ग़ौरतलब पहलू यह है कि पिछले 2017 असेंबली इलेक्शन में यू.पी. ‘साम्प्रदायिक राजनीति’ की एक नई प्रयोगशाला बन कर उभरा था। वह राज्य जो कभी गंगा-जमुनी सभ्यता का गहवारा थी वह अब पूरी तरह से नफ़रत, विभाजन और वैमनस्य की राजनीति का केन्द्र बन चुकी थी, और सरकारी संस्थाएँ साम्प्रदायिकता के ज़हर से पूरी तरह विषैली हो चुकी हैं।2017 में इस लेखक ने यू.पी. के तमाम ही ज़िलों का दौरा किया था और अपने चुनावी कवरेज में पाया था कि यू.पी. का यह इलेक्शन पूरी तरह पर मुस्लिम बनाम हिंदू ही लड़ा गया था। सेक्युलर पार्टियों ने भी अपने ज़ाती वोटों से ज़्यादा मुस्लिम वोटों पर ही ध्यान दिया था। इस चक्कर में वे यह भी भूल गए कि उनका ज़ाती वोट भी अब साम्प्रदायिक हो चुका है। वे ये समझते रहे कि उनकी ज़ात का वोटर तो उनके साथ ही है, लेकिन उनके इस यक़ीन का स्पष्ट लाभ बी.जे.पी. गठबंधन को ही मिला। इस बार भी ग्राउंड पर यही कुछ होता हुआ नज़र आ रहा है।
उवैसी भी हैं मैदान में, किस का बिगाड़ेंगे खेल
इस इलेक्शन में ऑल इंडिया मजलिस इत्तिहादुल-मुस्लिमीन के प्रमुख और सांसद असद उद्दीन उवैसी की मीडिया में बहुत चर्चा है।रिपोर्ट लिखे जाने तक उवैसी की पार्टी अपने उम्मीदवारों की चार लिस्टें जारी कर चुकी है जिसके अनुसार उन्होंने अब तक 28 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है।
अनिल माहेश्वरी कहते हैं कि उवैसी सवालात अच्छे उठा रहे हैं। वे यह पूछ रहे हैं कि मुसलमानों की क़ायम की हुई लीडरशिप ने मुसलमानों के लिए क्या-किया? आज तक यू.पी. में किसी सरकार में किसी मुसलमान को मुख्य मंत्री तो बहुत दूर की बात है गृह मंत्री भी नहीं बनाया गया। आख़िर मुसलमानों का कब तक पालकी ढोने वाले कहारों की तरह इस्तेमाल किया जाता रहेगा। यह सवाल अहम है, लेकिन उनकी बातों का असर शायद यू.पी. के मुसलमानों पर ज़्यादा पड़ने वाला नहीं है। अलबत्ता कुछ सीटों पर वे फ़र्क़ डाल सकते हैं। याद रहे कि 22 जनवरी को एक प्रेस कान्फ़्रेंस में उन्होंने इस बात का एलान किया कि उनकी पार्टी ‘ऑल इंडिया मजलिस इत्तिहादुल-मुस्लिमीन’ भागीदारी परिवर्तन मोरचा’ के तहत चुनाव में हिस्सा लेगी, और यह मोर्चा यू.पी. की तमाम 403 सीटों पर इलेक्शन लड़ेगा। असदउद्दीन उवैसी ने यह भी एलान किया कि अगर उतर प्रदेश में ‘भागीदारी परिवर्तन मोर्चा’ की सरकार बनती है तो पाँच साल की मुद्दत में राज्य में दो मुख्य मंत्री और तीन उप मुख्य मंत्री बनाए जाएँगे। इसमें एक मुख्य मंत्री पिछड़े समाज से और दूसरा मुख्य मंत्री दलित समाज से होगा। उप मुख्य मंत्री में एक मुस्लिम कम्यूनिटी से होगा। फ़िलहाल यह मोर्चा पाँच छोटी-छोटी राजनैतिक पार्टियों पर आधारित है। आगे इस मोर्चे में और कुछ पार्टियों को भी शामिल किया जाएगा।
असदउद्दीन उवैसी की पार्टी ने इससे पहले उतर प्रदेश में सौ असेंबली सीटों पर इलेक्शन लड़ने का एलान किया था। ओम प्रकाश राजभर ने भी असदउद्दीन उवैसी के साथ मिलकर ‘भागीदारी संकल्प मोर्चा’ का एलान किया था, लेकिन यह मोर्चा ज़्यादा दिनों तक नहीं चल सका और राजभर अखिलेश यादव के गठबंधन में शामिल हो गए। विश्वस्त सूत्रों के अनुसार असदउद्दीन उवैसी भी लगातार समाजवादी पार्टी से सम्पर्क में थे और वे चाहते थे कि समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन हो जाए, लेकिन अखिलेश यादव ने उवैसी को गले लगाने से परहेज़ किया।
मीडिया में बार-बार यह बात कही जा रही है कि उवैसी ने इस बार पहली बार यू.पी. की राजनीति में हिस्सा लिया है, लेकिन हक़ीक़त यह है कि उवैसी 2017 के यू.पी. असेंबली चुनावों में हिस्सा ले चुके थे। तब उनकी पार्टी ने 38 सीटों पर इलेक्शन लड़ा था, लेकिन पाँच छः सीटों को छोड़कर उनके ज़्यादा-तर उम्मीदवारों के वोटों की तादाद दो तीन हज़ार से ज़्यादा नहीं रही, सिर्फ़ संभल असेंबली सीट पर शफ़ीक़ुर्रहमान बर्क़ के पोते ज़ियाउर्रहमान ने 60426 वोट हासिल किए और दूसरे नंबर पर रहे थे। 2017 के यू.पी. असेंबली इलेक्शन में उवैसी की पार्टी को 38 सीटों पर कुल 205232 वोट मिले थे जो पूरे यू.पी. में डाले गए वोटों का सिर्फ़ 0.2 प्रतिशत था।
हर इलेक्शन की एक विशेषता, गुण और महत्त्व होता है जो राजनैतिक पार्टियों या उम्मीदवारों के लिए ही नहीं बल्कि वोटरों के लिए भी अहम होता है। उतर प्रदेश को कुछ इतिहासकार भारतीय राजनीति का ‘हार्ट लैंड’ कहते हैं क्योंकि यह इस देश का सबसे बड़ा राज्य है। लोकसभा की सबसे ज़्यादा सीटें इस राज्य में हैं। असेंबली सीटें भी सबसे ज़्यादा यहीं हैं। यहाँ जो पार्टी भी ज़्यादा सीटें जीतेगी उसका राज्य सभा में प्रतिनिधित्व बढ़ जाएगा। इस के अलावा जो ‘हिंदुत्व प्रोटागोनिस्ट’ हैं और जिनकी संख्य इन दिनों बहुत बढ़ गई है उनकी यह कोशिश है कि भारतीय राजनीति के ‘हार्ट लैंड’ पर उनका क़ब्ज़ा बरक़रार रहे। दूसरी तरफ़ इस राज्य में मुस्लिम अनुपात कई दृष्टि से निर्णायक है। सिर्फ़ आबादी की दृष्टि से ही नहीं कुछ दूसरे पहलू से भी उतर प्रदेश में मुसलमानों का महत्त्व है। आज़ादी की लड़ाई में यहाँ के मुसलमानों का बहुत बड़ा रोल रहा है।
यह बातें हफ़्तरोज़ा दावत के साथ ख़ास बातचीत में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (ए.एम.यू.) के सेंटर ऑफ़ ऐडवांस स्टडी इन हिस्ट्री के प्रोफ़ैसर मुहम्मद सज्जाद ने कहीं। उन्होंने कहा कि पिछले दिनों यू.पी. की साम्प्रदायिक राजनीति पर सज्जन कुमार और सुविधा पाई की किताब ‘एवरी डे कम्युनलिज़्म’ मार्किट में आई, इस में जो रिसर्च है इस को थोड़ा विश्वास की निगाह से देखा जाना चाहिए। इस किताब में बताया गया है कि साल 2002 में गुजरात में नरसंहार किया गया, उसके मुक़ाबले में यू.पी. में छोटे-छोटे मामले सामने आए। हर छोटे-बड़े मसले को साम्प्रदायिकता के रंग में रंग दिया गया। इसका फ़ायदा सरकारों को यह होता है कि जब तक साम्प्रदायिकता बनी रहती है दूसरी समस्याएँ जैसे सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, क़ानून-व्यवस्था आदि तमाम सवालों से लोगों का ज़ेहन भटका दिया जाता है और उन्हें केवल हर समय टकराव में रहने वाला धार्मिक पहचान वाला बना दिया जाता है। ऐसे में वोट हासिल करना सबसे आसान हो जाता है।
क्या किसान आन्दोलन का कोई असर इस इलेक्शन पर पड़ेगा?
इस सवाल के जवाब में प्रोफ़ेसर मुहम्मद सज्जाद कहते हैं कि इस आन्दोलन के दौरान किसान और सरकार के दरमियान टकराव तो ज़रूर हुआ, लेकिन वह टकराव इलेक्ट्रॉल पॉलीटिक्स में वोट में तब्दील होगा या नहीं, या यू.पी. के किसान बी.जे.पी. विरोधी मोर्चे में शामिल रहेंगे या नहीं, या उनकी एक बड़ी संख्या इस टकराव के बावजूद बी.जे.पी. की तरफ़ रहेगी, यह कहना मुश्किल है। हालाँकि वर्तमान सरकार से लोगों की नाराज़ी बज़ाहिर तो नज़र आ रही है लेकिन वोटिंग वाले दिन भी यह भावना बाक़ी रहेगी या उनपर भी साम्प्रदायिक राजनीति हावी हो जाएगी यह अभी कहना मुश्किल है।
प्रोफ़ेसर मुहम्मद सज्जाद आगे कहते हैं कि पिछले दिनों जब नागरिकता संशोधन क़ानून (सी.ए.ए.) के ख़िलाफ़ मुसलमानों ने शान्तिपूर्ण प्रदर्शन किया था तो उनके ख़िलाफ़ बहुत सख़्त कार्रवाई की गई जिन्हें क़ानूनी कार्रवाई कहना बहुत मुश्किल है। इस के अलावा भी हुकूमती सतह पर काफ़ी ज़्यादतियाँ देखी गईं । इस तरह के कई सवालात हैं जिनके बारे में बहुसंख्यक वर्ग में न्याय प्रिय विचार नहीं हैं तो सिर्फ़ अल्पसंख्यक अपने आपको एकजुट करके भी क्या करेंगे? वे आगे कहते हैं कि यू.पी. में मुसलमानों के ख़िलाफ़ सरकारी ज़ुल्म चरम पर है तो ऐसी स्थिति में अगर अल्पसंख्यक एकजुट भी हो जाएँ तो इससे कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ेगा कि जब तक बहुसंख्यक वर्ग को यह एहसास न हो कि अल्पसंख्यकों के साथ बी.जे.पी. हुकूमत ज़्यादती कर रही है, इसलिए दोबारा उसे सत्ता नहीं मिलनी चाहिए और हुकूमत महँगाई और बेरोज़गारी को कंट्रोल नहीं कर पा रही है अतः उसे दोबारा चुना नहीं जाना चाहिए। सिर्फ़ मुसलमान अपनी बेबसी की दास्तान सुना कर ख़ुद को एकजुट करके भी कोई बड़ा राजनैतिक परिवर्तन नहीं ला पाएँगे। सिर्फ़ यह सोचना कि एकजुट होकर अपने ऊपर होने वाले ज़ुल्मों से ख़ुद को सुरक्षित कर पाएँगे मुश्किल है, जब तक कि बहुसंख्यक समाज उनके साथ न हो जाए।
तो फिर मुसलमानों को क्या करना चाहिए?
इस सवाल के जवाब में प्रोफ़ेसर मुहम्मद सज्जाद कहते हैं कि चुनावी राजनीति नागरिकता की बुनियाद पर होती है। लोकतांत्रिक देश में हर नागरिक दूसरे नागरिक के बराबर होता है। जब नागरिक को मुसलमान और हिंदू बना दिया जाए तो मुसलमान हमेशा एक ‘खलनायक’ ही नज़र आएगा। इसलिए यह सवाल मुनासिब नहीं मालूम होता कि मुसलमानों को क्या करना चाहिए। अगरचे मुसलमानों को उनकी मुसलमान शनाख़्त की वजह से सताया जा रहा है। मुसलमान जब तक अपनी शनाख़्त के नाम पर वोट देते रहेंगे वे बराबर के नागरिक नहीं बन सकेंगे और अपने अधिकार नहीं प्राप्त कर सकेंगे।
वे आगे कहते हैं कि नागरिक चाहे मुसलमान हों या हिंदू उन्हें यह सोचना होगा कि सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, विकास, क़ानून-व्यवस्था, इन तमाम चीज़ों के लिए कौन सी पार्टी बेहतर है और अगर वे पाएँ कि कोई भी पार्टी बेहतर नहीं है तो सिर्फ़ एक ही पार्टी को क्यों बार-बार मौक़ा दें। बदलाव होता रहना चाहिए। जब तक सोच में बदलाव नहीं होगा कुछ ख़ास होने वाला नहीं है।
शनाख़्त की राजनीति से बाहर आना होगा
वे आगे कहते हैं कि शनाख़्त की राजनीति की अपनी हदें हैं। चाहे वह धार्मिक हों, भाषागत हों या फिर ज़ात-पात की हों, उन्हें एक दिन ख़त्म होना ही है। और हक़ीक़त भी यही है कि शनाख़्त पर आधारित राजनीति की हदें अब इंतिहा को पहुँच चुकी हैं, इसलिए लालू यादव और मायावती की राजनीति एक बिन्दु पर जाकर कमज़ोर पड़ गई। शनाख़्त की राजनीति की समस्या यह है कि इसको एक न एक दिन ख़त्म होना पड़ता है। हिंदुत्व पॉलीटिक्स का भी एक न एक दिन ख़ातिमा होना है। आप देख लीजीए कि इटली, जर्मनी या उन तमाम दोशों में जहाँ इस तरह की वर्चस्ववादी हुकूमतें थीं, वे ख़त्म हो चुकी हैं। लेकिन यह ज़रूर है कि यह जितना समय रहेंगी एक विशेष ग्रुप को नुक़्सान पहुँचाती रहेंगी लेकिन दरअसल यह नुक़्सान देश का होता है। अगर किसी राज्य में साम्प्रदायिकता हावी है तो इस साम्प्रदायिकता के ज़हर का तोड़ सेक्युलरिज़्म है। इसके लिए हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, दलित, बहुजन सबको एक साथ सेक्युलर राजनीति के लिए आगे आना पड़ेगा। इन सबको एक साथ एकजुट होना पड़ेगा।
आत्म मंथन की ज़रूरत है
वे कहते हैं कि मज़लूम क़ौम को ज़ुल्म से निमटने के तरीक़े सीखना चाहिए। उसे अपना आत्म मंथन भी करना होगा कि आख़िर हमें आज परेशान क्यों होना पड़ रहा है। अगर देश में हिंदुत्व प्रभावी हो रहा है तो क्यों? पिछले दशकों में कुछ न कुछ ऐसा हुआ होगा जिससे उसे ताक़त मिली। इसका पता लगाना भी ज़रूरी है कि कहाँ-कहाँ सेक्युलर डेमोक्रेटिक फ़ोर्सेज़ के पास कौन सी कमियाँ रह गईं जिनकी वजह से ये शक्तियाँ बुलन्दी पर पहुँच गई हैं। इस के अलावा अपनी ख़ुद की कमियों पर भी ग़ौर किया जाए और उनसे सबक़ लेकर आगे की रणनीति तैयार की जाए।
प्रोफ़ेसर सज्जाद कहते हैं कि इन तमाम बातों का आकलन जब आप पूरी गहराई के साथ निष्पक्ष, निष्ठावान और न्यायपरक तरीक़े से करेंगे तो आपको मालूम होगा कि आगे रणनीति और वैचारिक दृष्टि से कौन-सी रणनीति तैयार करनी चाहिए, दोनों सतहों पर कौन-सी तरकीबें अपनानी चाहिएँ जिनसे हिंदुत्व का ज़ोर टूटे और देश में लोकतंत्र एवं समानता का राज हो।
यह काम हम ही क्यों करें? दूसरी कम्युनिटी के लोग क्यों नहीं?
इस सवाल के जवाब में प्रोफ़ेसर सज्जाद कहते हैं कि हमें यह समझना होगा कि अगर सेक्युलर राजनीति कमज़ोर होती है और शनाख़्त की राजनीति मज़बूत होती है तो दूसरी कम्युनिटी के मुक़ाबले में सबसे ज़्यादा समस्याओं का हम ही को सामना करना पड़ेगा। अगर आप अभी तक यही समझ रहे हैं कि अपनी शनाख़्त बचा लेंगे तो सब बच जाएगा, तो मेरी नज़र में यह बात दुरुस्त नहीं है। इतिहास गवाह है कि वही क़ौम अपनी शनाख़्त बचा पाती है जो शिक्षा, टेक्नोलॉजी, मीडिया और व्यापार के मैदान में आगे होती है। अगर आप शिक्षा, रोज़गार और कारोबार का इंतिज़ाम नहीं, बल्कि सिर्फ़ अपनी शनाख़्त की राजनीति करेंगे तो याद रखें कि कुछ भी बचने वाला नहीं है।
प्रोफ़ेसर सज्जाद कहते हैं कि अगर आपको लगता है कि साम्प्रदायिक राजनीति से नुक़्सान सिर्फ़ मुसलमानों का हो रहा है तो फिर सेक्युलर राजनीति को बचाने में आगे-आगे मुसलमानों को ही रहना पड़ेगा। साम्प्रदायिक राजनीति का जवाब सेक्युलर राजनीति ही हो सकता है। अब अगर सेक्युलरिज़्म को लादीनियत (अधार्मिकता) कहकर मुसलमान भी साम्प्रदायिकता की राजनीति करेंगे तो अल्पसंख्यक होने के नाते आपको हर वक़्त कमज़ोर रहना है, और यह जो मुक़ाबले की साम्प्रदायिकता की राजनीति है इसमें अल्पसंख्यक हमेशा पिटेंगे। इस बात को रणनीति के तौर पर देखा जाना चाहिए।
कौन हैं प्रोफ़ेसर मुहम्मद सज्जाद?
प्रोफ़ेसर मुहम्मद सज्जाद बिहार के ज़िला मुज़फ़्फ़रपुर में पैदा हुए। वे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के सेंटर ऑफ़ ऐडवांस स्टडी इन हिस्ट्री के प्रोफ़ेसर हैं। पिछले अठारह वर्षों से यहाँ छात्रों को आधुनिक और सामयिक इतिहास पढ़ा रहे हैं। इससे पहले वे जामिआ मिल्लिया इस्लामिया में आधुनिक इतिहास पढ़ाते थे। उनके पिता मुहम्मद अक़ील मरहूम का संबंध भी शिक्षण से था, जो बिहार की एक यूनिवर्सिटी से जुड़े एक कॉलेज में पढ़ाते थे। उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी से उर्दू और इतिहास में एम.ए. की डिग्री हासिल की थी।
स्पष्ट रहे कि प्रोफ़ेसर मुहम्मद सज्जाद की कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी पहली प्रसिद्ध पुस्तक Muslim Politics in Bihar: Changing Contours को Routledge ने प्रकाशित किया। इसी वर्ष मुज़फ़्फ़रपुर के मुसलमानों पर 1857 से 2012 तक के दौर को समेटने वाली पुस्तक Contesting Colonialism and Separatism: Muslims of Muzaffarpur Since 1857 प्रकाशित हुई। इस पुस्तक का उर्दू अनुवाद पिछले वर्ष क़ौमी उर्दू कौंसिल ने प्रकाशित किया है। इसके अलावा ‘भगवा सियासत और मुस्लिम अक़ल्लियत’ पिछले साल ही प्रकाशित हुई है। अभी इसी महीने उनकी किताब ‘हिन्दुस्तानी मुसलमान : मसाइल-ओ-इमकानात’ का तीसरा संस्करण भी प्रकाशित हो कर आ चुका है। इसके अलावा साल 2019 में Remembering Muslim Makers Of Modern Bihar संपादित किया था। वे उर्दू, हिन्दी और अंग्रेज़ी तीनों ज़बानों में देश के अनेक समाचारपत्रों और वेबसाइटों पर कालम लिखते हैं। अगले कुछ दिनों में यू.पी. इलेक्शन पर वरिष्ठ पत्रकार अनिल माहेश्वरी की एक पुस्तक आ रही है, जिसे ओम बुक्स इंटरनेशनल ने प्रकाशित किया है। इस पुस्तक में यू.पी. की मुस्लिम राजनीति पर उनका एक अध्याय शामिल है।——(अनुवाद : गुलज़ार सहराई)
Sign in
Sign in
Recover your password.
A password will be e-mailed to you.
Comments are closed.