क्या आने वाले दिनों में किसानों का आंदोलन और तेज़ होगा?

किसानों को मना लीजिए, मान जाएंगे!

क्या आने वाले दिनों में किसानों का आंदोलन और तेज़ होगा?
 
फ़ैसल फ़ारूक़
हाल ही में पारित नए कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ दिल्ली की सीमाओं पर किसान पिछले तीन सप्ताह से हड़ताल पर हैं। किसान संगठनों और सरकार के बीच कई दौर की बातचीत के बाद भी कोई हल नहीं निकल पाया है। और अब यह मामला कुछ जनहित याचिकाओं के सहारे सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया है। वास्तव में, न तो किसानों और न ही सरकार ने इस मामले में शीर्ष अदालत का दरवाज़ा खटखटाया है, बल्कि अदालत दो वकीलों के अलावा एक आम आदमी के अनुरोध पर सुनवाई कर रही है। भाजपा किसान मोर्चा के नेता नरेश सिरोही का कहना है कि अगर इस मुद्दे पर पहले ही किसानों के साथ चर्चा की गई होती तो शायद सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप नहीं करना पड़ता।
 
उल्लेखनीय है कि प्रदर्शन स्थलों पर ठंड में भी किसानों का उत्साह क़ायम है। सिंघु बॉर्डर और टिकरी बॉर्डर दिल्ली, हरियाणा की सीमा है जहाँ हज़ारों किसान इकट्ठा हुए हैं। वैसे तो देश के सभी हिस्सों से किसान इस प्रदर्शन में भाग ले रहे हैं, लेकिन उनमें अधिकांश पंजाब के किसान हैं। लंबी दाढ़ी और रंगीन पगड़ी से सिखों की तादाद नुमाया नज़र आ रही है। यही वजह है कि प्रोपेगंडा मशीनरी ने इस प्रदर्शन को ख़ालिस्तानी आंदोलन से जोड़ दिया है। बहरहाल इसे रोकने के कितने ही प्रयासों के बावजूद, यह प्रदर्शन कई किलोमीटर तक फैल चुके हैं।
 
सरकार कहती है किसानों को इन सुधारों से ख़ुश होना चाहिए था, लेकिन क़ानूनों पर बारीकी से नज़र डालने से महसूस होता है कि नए कृषि क़ानून किसानों को नुक़सान पहुँचाएंगे, ख़ासकर छोटे और मध्यम दर्जे के किसानों को। मोटे तौर पर देखने में यह बात समझना मुश्किल है कि इन क़ानूनों की इबारत के बीच क्या-क्या छुपा हुआ है। किसानों के लिए विकल्प खुल जाएं यह अच्छी बात है लेकिन बाज़ार खुलने के साथ जोख़िम के लिए भी रास्ते खुल जाते हैं। इन जोख़िमों से कैसे बचा जाए, इसका कोई उल्लेख नहीं है, जो विशेष रूप से ग़रीब किसानों को प्रभावित करेगा।
 
यह क़ानून किसानों की सहमति के बिना बनाया गया है। किसानों के बीच सबसे बड़ा इख़्तिलाफ़ न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम एस पी) के ख़त्म हो जाने से है। सरकार कहती है कि एम एस पी को समाप्त नहीं किया जाएगा, लेकिन कॉरपोरेट्स कंपनियों को बाज़ार में उतरने और अनुबंध पर खेती करने के लिए जो रियायत दी जा रही है इसका नतीजा तो यही निकलेगा कि बड़े किसान, बड़ी कंपनियों से समझौता कर के ख़ुश रहेंगे और छोटे किसान मुंह देखते रह जाएंगे। सरकार का कहना है कि नए क़ानून की मदद से किसानों को अधिक विकल्प मिलेंगे और उनको फ़सल का बेहतर मूल्य मिलेगा।
 
इसके अलावा कृषि मंडियों, प्रसंस्करण और बुनियादी ढांचे में निजी निवेश को प्रोत्साहित किया जाएगा, जबकि किसानों को लगता है कि नया क़ानून उनके मौजूदा संरक्षण को ख़त्म कर देगा। किसान ऐसा मानते हैं कि उन्हें जो चाहिए वह नए क़ानून में नहीं है। किसान संगठनों ने पहली क़ानून को निरस्त करने की मांग की है और दूसरी मांग यह है कि एम एस पी पर ख़रीद की गारंटी दी जाए। वह ख़रीद फिर चाहे सरकार करे या कोई निजी एजेंसी या निजी व्यवसायी या कोई और। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि सरकार अपनी ज़िद छोड़ कर किसानों की मांग पर विचार करे। यदि ऐसा नहीं किया गया तो बहुत मुमकिन है कि आने वाले दिनों में किसानों का आंदोलन और तेज़ होगा।
 
(फ़ैसल फ़ारूक़ मुंबई में रह रहे जर्नलिस्ट और स्तंभकार हैं)

Comments are closed.