विचार:कमल देवबन्दी
कल 15 अगस्त यौमे आज़ादी का दिन गुज़र गया
यह खुशी की बात है के पहले के मुक़ाबले अब हम इन दिनों को खूब मनाते हैं और दिल से हिस्सेदारी करते हैं।पूरे दिन हम अपने उल्मा और दूसरे मुस्लिम बुजुर्गों को याद करते हैं।उनकी कुर्बानियों का तज़किरा करते हैं।
शाम होते-होते मेरी छोटी बहन का msg आया के आज़ादी मुबारक हो क्या इस मुल्क का खुद को शहरी साबित करने के लिए कागज़ भी पूरे हैं।बड़ी अजीब और गहरी बात थी।यह बात कुछ लोगों को देशद्रोह भी लग सकती है।मगर इसमे एक दर्द,अहसास और फिक्र है।सोचो।अगर कोविड 19 का अज़ाब ना आया होता तो मंज़र कुछ ओर होता।इसमे कोई शक नही।
अब मेरी सोच गहरी होने लगी।1947 से पहले मुसलमान लीडिंग रोल में थे।हज़ारों मुसलमानों ने आज़ादी की लड़ाई में शहादत पाई।यह तादाद किसी भी फ़िरके से कई गुना ज्यादा होगी।1857 से 1947 तक वो कमांडिंग पोजीशन में थे।1920 के आस-पास जब मुल्क की आज़ादी का यक़ीन होने लगा तो एक नायक और महात्मा के रूप में गांधी जी ने एंट्री ली।बहरहाल मुल्क आज़ाद हो गया।मगर एक विभाजन के साथ।जिसका ज़ख्म 74 साल बाद भी ताज़ा है।क्यूंकि उसको समय-समय पर कुरेदा जाता है।
आज़ादी के बाद मौलाना अबुल कलाम आजाद,डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन,फखरुद्दीन अली अहमद,हकीम हामिद,हिदायत हल्लाह,कारी मोहम्मद तय्यब,मौलाना अली मियां नदवी,डॉक्टर आ.पी.जे.अब्दुल कलाम,अज़ीम प्रेम जी,मुल्ला बुरहानुद्दीन,मौलाना ग़ुलाम वस्तानवी,दलीप कुमार,नोशाद, के.आसिफ,मेहबूब खान,नरगिस,मीना कुमारी,मोहम्मद रफी,ख़्वाजा अहमद अब्बास,साहिर लुधियानवी,कैफ़ी आज़मी,मजरूह सुल्तानपुरी,कादर खान,सलीम-जावेद, मेहमूद, नवाब मंसूर अली पटौदी,सलीम दुर्रानी,अजहरुद्दीन,अरशद अय्यूब, सय्यद किरमानी,इरफान पठान,शामी,सानिया मिर्ज़ा,ज़फ़र इक़बाल,यूसुफ देहलवी,वसीम बरेलवी,बशीर बद्र,राहत इन्दौरवी,मुनव्वर राना,आरफा खानम शेरवानी,आमिर खान,शाहरुख खान,सलमान खान जैसे हज़ारों लोगों ने इस मुल्क की तामीर,तरक़्क़ी में हिस्सेदारी की(इस सूची में इज़ाफ़ा भी हो सकता है)
मगर मेरे ख़्याल से(ज़हन में रक्खें)सियासत,तालीम और सच्ची ख़िदमत ए ख़ल्क़ के मैदान में मुसलमानों की महरूमी रही।ख़ासतौर से सियासत के मैदान में उसको मिल्ली वफादारों के ना होने का बड़ा नुक़सान हुआ।हर सियासी पार्टी ने मुसलामनों को वोट बैंक समझा।जाहिलों को सियासी ऐतबार से अपनी बगल में बिठाया।थानों,दफ्तरों की दलाली सिखायी।उनसे ज़िंदाबाद और मुर्दाबाद के नारे लगवाए।जिसका नतीजा हमारे सामने है।
दूसरे मुसलमानों ने तालीमी इदारों के क़याम में बड़ी कोताही दिखाई।जिसका क़ब्ज़ा जिस बराये नाम मुस्लिम इदारे पर हो गया।उसने उसको दीमक की तरह खाया और खा रहा है।इदारों के 100 बीघे ज़मीन भी कम पड़ गयी।जबकि दूसरे लोगों और क़ोमों ने अपना दिल निकालकर रख दिया और वो इल्म के मैदान में कोसों दूर निकल गए।देवबन्द जैसी ज़रख़ेज़ जगह पर भी मुसलमान कोई इंटर या डिग्री कॉलेज सिर्फ बहनों और बेटियों के नाम पर क़ायम ना कर सके।चन्द मदरसे ज़रूर बने जो फीस,चंदे और सरकारी खजाने पर डाका डाल रहे हैं और जो मुस्लिम इंग्लिश मीडियम स्कूल हैं।वो आधे तीतर आधे बुटेर हैं।उनकी निगाह माँ-बाप की जेब पर है।मिल्लत का दर्द इनको भी नही।
जब तक मुसलमानों में मुसलमानों के लिए सियासी और सबसे बढ़कर तालीमी दर्द नही होगा।तब तक हालात ऐसे ही रहेंगे बल्कि और ख़राब होंगे।
(विचार:कमल देवबन्दी)आपका विचारों से सहमत होना ज़रूरी नही—
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